◆◆वो आख़री मकान◆◆
याद आता है आज भी
गली का वो आख़री मकान
सबसे अलग सा था
कुछ रूठा सा लगता था
जैसे घर का कोई बुज़ुर्ग
टूटा सा लगता था
उखड़ती सी दीवारें थीं
और काँपते से छज्जे थे
चारों ओर काई की चादर थी
और घास के लच्छे थे
गुज़र गया सारा बचपन
उस गली से आते जाते
उस मकान की उम्र को
ढ़लते हुए देखते देखते
उसकी अधखुली खिड़की से
देखा था कई बार
दो बूढ़ी आँखों को
घर के बाहर उम्मीद को ताकते हुए
करते थे लोग बातें
जाने कब ये खंडहर ढहेगा
सुहाता नहीं है ये
चमचमाती बिल्डिंगों के बीच
मनहूसियत सा अड़ा बैठा है
गिर रहा है फिर भी ऐंठा है
छोड़ माँ बाप को
बेटा उस घर का विदेश जा बसा था
याद नहीं अब किसी को
वो घर आख़री बार कब हँसा था
त्योहारों का आना जाना भी अब
बंद सा हो गया था वहाँ
निराशा बैठी रहती द्वार पर
ख़ामोशियों के डेरे थे जहाँ तहाँ
एक दिन जाने क्यूं मेला सा उस घर के बाहर लगा था
सूखे दो शरीर पड़े थे बिस्तर पर
इंतजार फंदे पर लटका रहा था
कोई दुखी था तो कोई हर्षित था
अब निकली अकड़ इस मकान की
कुछ ही दिनों में भरभरा गया
जैसे आत्मा निकल गई हो शरीर से
★★★
प्राची मिश्रा
Hi
ReplyDeleteआपके लेख अतिउत्तम
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteU r right
ReplyDeleteआपके शब्दों को पढ़कर पुरानी यादे ताज़ा हो गई बहुत सत्य लिखा है आपने बहुत अच्छा लगा पढ़कर 🙏🙏
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