◆◆हाँ! मैं औरत हूँ◆◆
नए ज़माने के साथ मैं भी
क़दम से क़दम मिला रही हूँ
घर के साथ साथ बाहर भी
ख़ुद को कर साबित दिखा रही हूँ
हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का
लोहा भी मनवा रही हूँ
हाँ! मैं औरत हूँ
नहीं किसी की जागीर हूँ
तन से कह लो भले अबला मुझे
पर मन से बेबस मत समझ लेना
हौसला हिमालय सा धारण करती हूँ
मैं आकाश सा हृदय भी रखती हूँ
फिर भी झुक जाती हूँ अपनों की ख़ातिर
मैं रिश्तों की शिल्पकार हूँ
हाँ! मैं औरत हूँ
नहीं किसी की जागीर हूँ
हक़ दो घर मुझ पर जताते हैं
पर मेरा घर है कौन सा?
नहीं ये बताते हैं
परिवार मुझसे ही,हूँ घर भी मैं
रहती हूँ खुश अपनों की खुशियों में
सपने स्वयं के लिए मैं बुनती नहीं
हर रिश्ते की सुंदर तस्वीर हूँ
हाँ ! मैं औरत हूँ
नहीं किसी की जागीर हूँ
मैं सभ्य हूँ! जब तक पुरुष के पीछे हूँ खड़ी
मैं स्वछन्द हूँ! 9गर अपनी बात पर हूँ अड़ी
परिभाषा ही बदल जाती है मेरी
जब राह अपनी स्वयं चुन लेती हूँ
मैं गृहलक्ष्मी हूँ ! गर रिश्ते सहेजती हूँ
मैं कुल्टा भी हूँ!गर रिश्तों मुँह मोड़ती हूँ
धरती के जैसी तकदीर हूँ
हाँ! मैं औरत हूँ
नहीं किसी की जागीर हूँ।
★★★
प्राची मिश्रा