◆◆क़लम की आवाज़◆◆
कभी प्रेम लिखती है
कभी विद्रोह करती है
कभी स्वप्न बुनती है
कभी द्रवित बहती है
ढ़लती कवि रंग में
कवि जैसी रहती है
ये क़लम की आवाज़ है
यूँ ही बेबाक़ कहती है
हर्षित करे ये उर कभी
कभी आक्रोश भरती है
सत्य दिखला दे कभी
कभी भ्रमित करती है
तेज इसमें रवि सा कभी
कभी अंधकार लिखती है
ये क़लम की आवाज़ है
यूँ ही बेबाक़ कहती है
यौवन लिखे नारी का कभी
कभी गाथा वीरों की लिखती है
बदल देती है सिहासन कई
जब कागज़ पर चलती है
इतिहास रच देती है नए
जब सत्य लिखती है
कभी युद्ध लिखती है
कभी विनाश लिखती है
ये क़लम की आवाज़ है
यूँ ही बेबाक़ कहती है
है क़लम वो सच्ची जहाँ में
जो कवि का ह्रदय लिखती है
लिखती है वो बात समाज की
जो ना किसी के भय में रहती है
है क़लम तब तक वो बड़े काम की
जब तक ना वो पैसों में बिकती है
ये क़लम की आवाज़ है
यूँ ही बेबाक़ कहती है।
★★★
प्राची मिश्रा
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