◆◆आदमी◆◆
जिंदगी की उधेड़ बुन में उलझा हुआ
सपनों के बाजार में खड़ा वो आदमी
अपनी मेहनत की जेब में पड़े हुए
कुछ औक़ात के सिक्कों को गिन रहा है
कौन सा सपना सस्ता और कौन सा है महँगा
क्या खरीद ले जाएगा आज वो घर अपने
और सजा देगा अपनों की पलकों पर
और क्या है जो छूट जाएगा अधूरा
बस अरमानों के मोलभाव में यूँ ही।
हर पल को बस अपनों के लिए जीता हुआ
दर्द के दामन को मर्दानगी की सुई से सिलता रहा
कहीं दिख न जायें बेबसी के निशां किसी को
मुखौटे हर रोज़ हज़ारों बदलता रहा
कभी घुटता रहा कभी पिसता रहा
पर वो आदमी था तो यूँ ही हँसता रहा।
ये ज़माना भी कमाल करता है
जो रोयें अबला तो मलाल करता है
मर्दों के रोने पर सवाल करता है
इसी कश्मकश में डूबा हुआ वो आदमी
कर न सका दर्द ए बयां किसी से
बना रहा सख्त दरख्तों सा यूँ ही
दिल की नरमी दिखाता भी किसको।
हर रोज़ मेहनत से टूटता बिखरता हुआ वो आदमी
घर लौट आता है समेटे स्वाभिमान की चिल्लर
दिल में हों चाहे तूफ़ान कई और थकान भरे हों सारे अंग
न कहता किसी से ,बस सहता हुआ वो आदमी
बस बिखेर देता है घर में ठंडे झोकें सुख और आराम के
जीवन की उधेड़बुन में उलझा सा वो आदमी।
★★★
प्राची मिश्रा
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