** अधूरी हूँ मैं तुम बिन **
जैसे पुष्प बिना भौंरे के
जैसे धरा बिना आकाश के
जैसे दीपक बिना प्रकाश के
जैसे बदली बिना जल के
अधूरे हैं सब एक दूजे के बिन
वैसे ही अधूरी हूँ मैं तुम बिन
अधरों पे खिलती है हँसी जो मेरे
नैनों की चमक इक दीदार से तेरे
तेरी उँगलियों में उलझी मेरी उँगलियाँ
खुशबू है तेरी और महकती रहती हूँ मैं
रातें भी तेरी और तेरे हो गए हैं मेरे दिन
कुछ भी न सूझे अब तो तेरे बिन
अधूरी हूँ मैं तुम बिन
तेरा प्रेम जैसे शाम हो सुहानी
प्यारी लगे तेरी हर एक नादानी
खोके सब कुछ पा लिया मैंने तुमको
पलकों के साये में तुम रखते हो हमको
जैसे किनारे संजोते हैं नदिया का पानी
लगता नया मुझको हर पल हर दिन
क्योंकि अधूरी हूँ मैं तुम बिन
ये कैसा है रिश्ता ,है ये कैसा बंधन
दो अंजाने निभाते हैं इसको उमर भर
चाहे राहों में हों फूल या काँटे हज़ार
पथिक दोनों चलते डाले हाँथो में हाँथ
कुछ खट्टी कुछ मीठी थोड़ी कड़वी सी जिंदगी
अब तो हो जैसी भी न बितानी है तुम बिन
क्योंकि अधूरी हूँ मैं तुम बिन
★★★
प्राची मिश्रा
अत्यंत सुंदर रचना , तीसरा अंतरे की पंक्तियों के किये अलग से प्रशंशा
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