आज बहुत कुछ लिखने की इच्छा है पर समझ नहीं आ रहा कंहाँ से शुरू करूँ और क्या क्या लिखूँ , क्या मुझे इस त्रासदी के बारे में लिखना चाहिए या फिर घरों में बंद करोड़ों परिवारों के बारे में लिखना चाहिए या फिर भूखे पेट बिलखते उस बच्चे के बारे में लिखना चाहिए जो आज सूनी सी सड़क पर अपने माता पिता के साथ पलायन को मजबूर है, मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो दादी हैजा और अन्य महामारियों के फैलने की कहानी सुनाती थीं,और हम भी कहानी की तरह सुन लेते थे ना तो कभी उस परिस्थिति का मानसिक चित्रांकन किया और ना ही उस पीड़ा को महसूस किया जो दादी महसूस किया करती थीं उस घटना को बताते हुए ,उनकी आंखे दर्द से भर जाती थीं,वो कहते हैं ना "जौहर की गति जौहर जाने और न जाने कोय"....क्या पता था वो बचपन की कहानी एक दिन इस तरह विकराल रूप लेकर हम सबके द्वार पर मुंह फाड़े खड़ी होगी,आज उस पीड़ा को हरपल जी रहे हैं हम सब,कभी कभी सोचती हूँ कि क्या हम इसे टाल सकते थे ,यदि ऐसा कर पाते तो कितना अच्छा होता,यही सोच आज विश्व के हर व्यक्ति की है।
यह बीमारी रक्तबीज की तरह बढ़ रही है,हर ओर विनाश दिख रहा है,ऐसे में एक बूढ़ी माँ जो अपनी खिड़की के पास अकेली कुर्सी पर बैठी है और अपने विदेश में रहने वाले इकलोते बेटे की यादों में खोई बाहर की ओर देख रही है , जिसने अभी पिछले महीने ही माँ से वादा किया था कि " माँ मैं अगले महीने तेरी बहू और पोती को लेकर आ रहा हूँ और इस बार तुझे भी ले जाऊंगा" वो माँ यही सोच रही है कि शायद वो एक सपना था जिससे वो अभी अभी जागी है ,क्योंकि एक हफ़्ते पहले ही उसको सूचना मिल चुकी है कि अब उसका बेटा और उसका परिवार नहीं रहा,ये सुरसा उन्हें निगल गयी जिस पोती का अभी मुँह भी नहीं देखा था उसका कोमल शरीर अंतिम संस्कार को भी तरस गया,यह बहुत मार्मिक है...ये दर्द दिन दुगना रात चैगुना बढ़ रहा है,क्या इस तांडव को रोकने कोई दुर्गा नहीं आएंगी,हम जानते हैं कि एक दिन यह सब ठीक हो जाएगा पर क्या सच में सब ठीक हो जाएगा,तो याद कीजिये महाभारत का युद्ध जिसमें विजय पांडवों की हुई परंतु क्या सच मे वो विजय सुखद थी...
मेरी गोद मे बैठी मेरी चार वर्ष की बेटी पूछती है "माँ मैं कब बाहर खेलने जाऊँगी" तो मेरे शब्द खो से जाते हैं कुछ नहीं होता कहने को,,,आप ही बताइए क्या यही भविष्य सोचा था आपने और हमने अपने बच्चों के लिये,मनुष्य मनुष्य से विलग हो गया और अपने ही आशियानें में कैद हो गया....प्रकृति की नाराज़गी हम सब को झेलनी पड़ेगी, फिर वो भी तो माँ है कब तक रूठी रहेगी हमसे कभी तो फिर से प्यार आएगा हमपे...आज समय आ गया है प्रकृति माँ को मनाने का जो हमने दिन रात उनका दोहन किया वो उन्हें लौटाने का,,,और अंत में यही कहूँगी कि इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता हमें तो बस इस विपदा को हराना है तो मजबूत बने जिम्मेदार बने, भारत माँ आज थोड़ी कमजोर पड़ी है पर क्या चिंता उसके एक सौ तीस करोड़ बच्चे उन्हें संभाल लेंगे, नियमों का पालन करें जियें और जीने दें...धन्यवाद
जय हिंद🙏